Sunday, November 30, 2014

अर्धांगिनी



अर्धांगिनी बनी हूँ जीवन की
संगिनी एक पल किस्मत ही की
पंथी मिले बहुतेरे रास्ते में
जीवन जैसा न कोय

अर्धांगिनी बनी हूँ जीवन की

जब रुलाये जब हंसाए
जब दौड़वाये जब सुलवाये
सब कर्त्तव्य संग-संग निभाये
राही नहीं है याद कोय

अर्धांगिनी बनी हूँ जीवन की

पंथ कौन या रीत है कौन
जो मिले अपनाये सबको
समय बीते न पता चले
किससे लागे जिया मोये

अर्धांगिनी बनी हूँ जीवन की

समर्पण है पूरा जिससे वो
जीवन साथ देता है अथाह
सब निकट हैं दूर भी सब
एक जीवन नहीं खोता मोये

अर्धांगिनी बनी हूँ जीवन की

Tuesday, November 18, 2014

रकीब की क़ुर्बानी

बावरा दिल फिर खोजन निकला
ऐ इश्क़-ए-मशाल  पर पिघला

याद आती थी उनकी बहुत
इतनी कि पार कर गए सरहद

सोचा न देखा न सुना कुछ
आँखें खोल के पिया सचमुच

निगाहों का इशारा न समझा
न जाना वैरी न मित्र या साझा

जुस्तुजू जुस्तुजू रही दीवानगी
न इल्म रहा कब कर बैठे हम बंदगी

वोह आयतें वोह सूरा और कलाम
सभी हैं लगते दोस्त-ए - कलम

यार का याराना और बेरुखी भी देखी
ज़ाहिर और छुप छुप के सभी लिखी

एक और एक ग्यारह होते या दो
अब लेना नहीं यारों बस मकसद है दो

अल्लाह -ए - जतन किये  जाते हैं
तुम पे ये क़ुर्बानी दिए जाते हैं





Saturday, November 8, 2014

सिफर

बेशुमार हमसफ़र हैं
फिर भी इक सिफर है

हज़ारों चलते हैं साथ
फिर भी दूर हैं सबके हाथ
एक-एक  तारा कहता यह  कहानी
नयी सुनाओ नहीं सुननी पुरानी
अकेली वह डगर है अनोखी
न हैं दोस्त न ही कोई सखी
फिर भी रास्ता पकड़ना है यारों
शत्रु बनें या रहते तुम प्यारों

बेशुमार हमसफ़र हैं
फिर भी इक सिफर है

हर राह को पकड़कर एक
मिलती है मंज़िल वहीँ अनेक
छोड़ देते हैं सभी राहों में
हासिल होता है गंतव्य निगाहों में
लेकर एक सपना नया
छोड़कर निष्ठुर प्रेम और दया
चलें एक अनूठी मंज़िल
बनते हुए अधूरी ग़ज़ल


बेशुमार हमसफ़र हैं
फिर भी इक सिफर है